छेर छेरा पर्व: प्रकृति, परंपरा और उत्साह का संगम

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छेर छेरा पर्व छत्तीसगढ़ के प्रमुख लोक पर्वों में से एक है, जो फसल कटाई के उपलक्ष्य में मकर संक्रांति के अवसर पर मनाया जाता है। इस पर्व का ग्रामीण जीवन में विशेष महत्व है क्योंकि यह कृतज्ञता, भाईचारे और सामूहिकता का प्रतीक है।

पर्व की परंपरा और मान्यता

छेर छेरा का शाब्दिक अर्थ है “छेर छेरा, माई कोठी के धान ल हेर हेरा,” जिसका अर्थ है कि धान की कोठियों को खाली किया जाए ताकि सभी में खुशहाली आए। इस दिन लोग घर-घर जाकर गीत गाते हैं और अन्न, धान या अन्य खाद्य सामग्री की मांग करते हैं। इसे नई फसल की खुशी और समृद्धि के प्रतीक के रूप में देखा जाता है।

पर्व का आयोजन

गांव के बच्चे, युवक-युवतियां और बुजुर्ग मिलकर टोली बनाते हैं और घर-घर जाकर छेर छेरा के गीत गाते हैं। घरों में लोग उत्साहपूर्वक उनका स्वागत करते हैं और उन्हें धान, चावल या पैसे देते हैं। इसके बाद सभी लोग सामूहिक भोज का आयोजन करते हैं जिसमें पारंपरिक व्यंजनों का स्वाद लिया जाता है।

सांस्कृतिक महत्व

छेर छेरा न केवल कृषि आधारित जीवन की झलक प्रस्तुत करता है बल्कि यह सामाजिक समरसता और सहयोग की भावना को भी प्रोत्साहित करता है। यह पर्व हमें प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने और सामाजिक एकता बनाए रखने की प्रेरणा देता है।

पर्यावरण संरक्षण का संदेश

आज के समय में जब पर्यावरण संरक्षण एक महत्वपूर्ण विषय बन गया है, छेर छेरा हमें यह याद दिलाता है कि प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जीवन जीना कितना महत्वपूर्ण है।

निष्कर्ष:
छेर छेरा केवल एक पर्व नहीं है, यह ग्रामीण जीवन की जीवंतता और उनकी परंपराओं की सजीव अभिव्यक्ति है। इस पर्व से न केवल समाज में भाईचारा बढ़ता है बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक विरासत को भी संरक्षित करता है।

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